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बुधवार, 12 जनवरी 2011

मुम्बईया कविता

मुम्बईया कविता

मुम्बईया कविता
मुम्बईया हिन्दी बोलने वाले एक परिवार के घर की छत पर बैठना नसीब हुआ। 'आएला', 'गएला', 'खाएला' सुन-सुन कर 'सोच' में जो लयबद्धता सी आ रही है, क्यों न इसे में कविता में रुपांतरित करदुँ। ब्लोगिन्ग के क्षेत्र में कविता लिखना और छापना जितना आसान है उतनी आसान कोई कला मैरी नज़र से कोई दूसरी नही गुज़री! बहर, वज़न वगैरह तो अभी समझ नही पा रहा मगर ये 'ला' पे समाप्त होने वाले 'काफ़िये''तो झुण्ड के झुण्ड मैरे समक्ष ऐसे आ रहे है जैसे मैं केले के व्रक्ष पर सवार हो हाथ साफ़ कर रहा हूँ। उत्साह यूं भी बढ़ा हुआ है कि कोई आलोचना तो होना नही, क्योंकि अधिकांश टिप्पणियाँ जो 'बाय'डिफ़ाल्ट' सहेजी गयी है वे 'सुन्दर', 'बहुत सुन्दर', 'रोचक', 'बहुत खूब' वगैरह-वगैरह तक ही सीमित है। मैरे उत्साह वर्द्धन के लिये प्रयाप्त है। बस! उदारवादी पाठकगण 'कोपी'+पेस्ट' का कष्ट ग्वारा करले! हाँ, मैडम जोगलेकर से डर है, जिन्होंने एक सीनियर ब्लोगर को गाड़ी के नीचे चलने वाले प्राणी से उपमा देने में भी संकोच नही किया था या फ़िर एक कानूनविद महोदय से जिनकी सहित्यिक टिप्पणी बड़ी सटीक होती है - बेलाग्। इस प्रार्थना के साथ की इन महनुभावो की क्रपा द्रष्टि से मैरी प्रथम कविता बच निकले…… लिख ही मारता हुँ:-

अकेले है,थकेले है,
सुरा पी कर पड़ेले है।

रईसी में पलेले है,
बिगड़ कर भी बनेले है।

सियासत से भरेले है,
उखड़ कर भी जमेले है।

बिगड़ बैठे, रुठेले है,
हुई शादी?,बचेले है।

बुढ़ऊ लेकिन नवेले है,
बिना ढक्कन टपेले है।

चमेली बिन चमेले है,
पतंग बन कर कटेले है।

मग़ज़ के ये सड़ेले है,
न छेड़ो ये तपेले* है।

कवि-बन्दर, पढ़ेले* है?
नही, पत्थर-गुलैले है।

नोट:- अब गुलैल और पत्थर दोनो मेरे हाथ में है……अगर टिप्पणी नही दी तो……!

*तपेले= तपे हुए, पढ़ेले= पढ़े-लिखे ।

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